Tuesday 18 June 2013

'लक्ष्मी जगार': बस्तर का वास्तविक रंग



देश के आदिवासी प्रखंड बस्तर की सांस्कृतिक विरासत अत्यंत समृद्ध है। 21वीं सदी के विकास के बावजूद आदिवासी समुदाय अपनी जड़ों, परंपराओं और सामाजिक-धार्मिक प्रथाओं से जुड़ा हुआ है। उनके जीवन की कठिनाइयां, सीमित संसाधन व अभाव उन्हें अनादि काल से चली आ रही परंपराओं को निभाने से नहीं रोक पाता। वैसे तो इन त्यौहारों व परंपराओं के निर्वाह का प्रमुख कारण उनकी धार्मिक आस्थाएं हैं, लेकिन उनका सामाजिक महत्व भी कोई कम नहीं है। भौतिक रूप से विकसित समुदायों के विपरीत आदिवासी समुदाय सार्वजनिक गतिविधियों में अपना काफी समय और ऊर्जा लगाता है।   हाल ही में मैं इस क्षेत्र के कोंडागांव में था, जहां मुझे 'लछमी जगार ' (लक्ष्मी का जागरण) देखने का सौभाग्य मिला। यह त्यौहार लगभग सभी गांव या गांवों के समूह में मनाया जाता है। धान की फसल घर आने पर इसका आयोजन होता है। कृषि पर आधारित भारत जैसे देश में फसलों का घर आने का सीधा अर्थ है नकदी और वर्ष भर खाने का इंतजाम!
 पुजारी या किसी बुजुर्ग के मार्गदर्शन में लक्ष्मी का पारंपरिक वाद्य यंत्रों के साथ जुलूस निकलता है। विभिन्न प्रथाओं व धार्मिक अनुष्ठानों के साथ गांव के तालाब में इसका पूजा-पाठ के साथ समापन होता है। प्रकारातरों के साथ सारे बस्तर में इसका आयोजन होता है।
मेरे जैसे किसी बाहरी व्यक्ति के लिए यह त्यौहार न सिर्फ सांस्कृतिक सौगात रही, वरन वह आंखों व आत्मा को असीम संतोष देने वाला आयोजन भी था!
'लक्ष्मी जगार ' बस्तर के अनेक रंगों में से एक है, रंगीन और स्पंदित बस्तर!!




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