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Monday, 17 June 2013

दो कविताएं

गिरो मेरी बाहों में


गिरो मेरी बाहों में तुम बार-बार
जीवन के गिरते मूल्यों की तरह,
हर बार उठाऊं मैं तुम्हें
दाल की कीमत की तरह।

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तलाश


तलवों तक की नाकामी के बाद
रीढ़ को अब बाप
बेटे की पीठ पर तलाषता है।
कुछ नहीं बचा उसके पास
विरासत में देने के लिये-
सिवा इस तलाश के 

कुदमुरा: गजाकार खौफ



पेड़ पत्ते नहीं
लहराते हैं खौफ़
शाम तक बसता था जनपद
सुबह होते-होते वीरान हो जाता है
हिलता-डुलता व्यापता आतंक
देता है दिन में भी सतर्कता का आदेष,
किसी ने नहीं सुनाया था फरमान
घर के भीतर दुबक जाने का,
पर होता ऐसा ही है।

साइकिलों के थमे पहिये
दूकानों की चढ़ी सांकलें
सूना पड़ा बस स्टैंड
होटलों के ठंडे चूल्हे
दिन को एकदम छोटा कर देते हैं-
रात के बाद तुरन्त रात आ जाती है।

मौत की नींद सी लम्बी रातें
दिन को भी ऊंघते लोग
साल भर दीवाली मनाते हैं,
मषालों की ओट में
पाते हैं सुरक्षा का एहसास।


सरपंच के पास तैयार है
मुआवजे की रकम
सिर्फ नाम भरना बचा होता है।
तैयार है कोटवार
खबर पहुंचाने के लिये-
अभी-अभी कुचला है
डर ने एक और को।

बकाया है
जमीन से ऊपर बित्ता भर दीवारें
कभी बसता था जीवन
उन्हीं सूने घरों में।

(हाथियों से आतंकित व क्षतिग्रस्त कुदमुरा में रात गुजारने के बाद)